निर्मला
"निर्मला" हिंदी साहित्य के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद के एक गहन कार्यों में से एक है, जो अपने नाम से ही अपनी कहानी के मुख्य पात्र के सामाजिक और निजी त्रासदियों को प्रकट करता है। प्रेमचंद, जिन्हें हिंदी साहित्य में 'उपन्यास सम्राट' कहा जाता है, ने इस उपन्यास के माध्यम से 20वीं सदी के प्रारंभिक भारत में प्रचलित कठोर सामाजिक मानदंडों और विवाह प्रणाली की आलोचना की है।
राम चंद्र शृंखला
अवलोकन:
अमीश त्रिपाठी की "राम चंद्र" श्रृंखला भारत की सबसे महान पौराणिक कथाओं में से एक, रामायण की महाकाव्य कहानी की पुनर्कल्पना करती है। श्रृंखला में चार पुस्तकें शामिल हैं: "इक्ष्वाकु का वंशज," "सीता: मिथिला का योद्धा," "रावण: आर्यावर्त का शत्रु," और "लंका का युद्ध।" प्रत्येक पुस्तक रामायण के प्रमुख पात्रों के जीवन पर प्रकाश डालती है, उन्हें एक नई रोशनी में प्रस्तुत करती है जो मिथक को ऐतिहासिक कल्पना के साथ जोड़ती है।
हनुमानाष्टक
बाल समय रवि भक्षी लियो तब,
तीनहुं लोक भयो अंधियारों।
ताहि सों त्रास भयो जग को,
यह संकट काहु सों जात न टारो।
देवन आनि करी बिनती तब,
छाड़ी दियो रवि कष्ट निवारो।
को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥ १ ॥
बालि की त्रास कपीस बसैं गिरि,
जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महामुनि साप दियो तब,
चाहिए कौन बिचार बिचारो।
कैद्विज रूप लिवाय महाप्रभु,
सो तुम दास के सोक निवारो ॥ २ ॥
अंगद के संग लेन गए सिय,
खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु,
बिना सुधि लाये इहाँ पगु धारो।
हेरी थके तट सिन्धु सबे तब,
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हनुमान चालीसा
दोहा :
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
चौपाई :
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
रामदूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।।
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पौधे की पुकार
ऐ मानव, जो हम ना रहे तो
तुम कैसे रह पाओगे,
सावन के झूले छोड़ चुके हो
और क्या-क्या छुड़ाओगे?
ऑक्सीजन के सिलेंडर
अपनी पीठों पर लटकाओगे,
उस सिलेंडर में भरने को
ऑक्सीजन कहाँ से लाओगे?
तुमने जंगलों को काटकर
कंक्रीट के जंगल खड़े किए,
इन जंगलों में सजाने को
लकड़ी कहाँ से लाओगे?
इतना सोचो हमारे बिना
आयुर्वेद का मोल कहाँ,
रोगों के उपचार के लिए
जड़ी-बूटियाँ कहाँ से पाओगे?
अगर जानवर नहीं रहे तो
उपनाम
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"जब वो आतीं"
जब वो आतीं खिलती कलियाँ,
जब वो आतीं खिलते मन,
जब वो आतीं धक-धक करके,
हृदय धड़कता, पल-पल हरदम|
जब वो आतीं, देख-देख कर,
होता है मन-चित्त प्रसन्न|1|
काश! वो मुझसे बातें करती,
भूल जाता मैं सारे ग़म|
अगर साथ मिले जो उनका,
लगा दूँ अपना तन, मन, धन|2|
रहना चाहे कदमों में उनके,
मृगतृष्णा सा पागल मन,
रहना चाहे कदमों में उनके,
मृगतृष्णा सा पागल मन|3|
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मेरा केमरा
सब की खुशियों में शामिल होता मेरा केमरा
सब के होठो पर मुश्कान लाता मेरा केमरा
तुम्हारी यादो में जाकता मेरा केमरा
तुम्हारी हँसी ठिठोली में सामने होता मेरा केमरा
रोते हुए को हँसता मेरा केमरा
खुशी के मारे रुलाता मेरा केमरा
कभी किसी की याद दिलाता
कभी बिछड़े हुए को मिलाता
हर खुशियों को समेटता
हँसी मजाक इठलाती शरारतों को समेटता मेरा केमरा
सब मानते खुशिया और चुप रहता मेरा केमरा
पर जब भी केमरे की यादो को देखा
तो हर पल रुलाता हे मेरा केमरा
"उसका आज नही होता
उसका आज कोई नही समझता"
उपनाम
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युवराज का आगमन
एक देश में एक राजा का शाशन था. उसके सभी दरबारी अत्यंत वफादार थे. राजा बहुत दयालु था. उसके शाशन में प्रजा बहुत खुश थी. किन्तु कुछ विरोधी लोग हमेशा राजा के विरुद्ध षड़यंत्र करते रहते थे. ऐसे ही एक षड़यंत्र के तहत प्रजा में राजा के विरुद्ध झूठी भावनाएं भड़का कर उन्होंने राजा को गद्दी से उतार दिया. इसके बाद एक षड़यंत्र के तहत राजा को मरवा दिया गया. राजा का ज्येष्ठ पुत्र उस समय राज-काज सँभालने के लिए बहुत छोटा था. इस लिए राजमाता के संरक्षण में एक वफादार वजीर को गद्दी पर बैठाया गया.
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जनतंत्र का का जन्म
सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह,समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.
जनता? हाँ, मिट्टी कि अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा रहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली.
लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.
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कसाई
एक बार बैठे-बैठे सोचा,
चलो बाजार पर नज़र दौडाई जाय.
चल कर कुछ चीज़ें उठाई जाएँ.
मैं ज्यों ही बाजार में निकला,
मेरा मन ना जाने क्यों मचला.
मैं कुछ आगे बढ़ा तो
मेरा मन थर्राया.
सामने कसाइयों का बाज़ार नज़र आया.
मेरे सामने ही एक कसाई ने गंड़ासा उठाया,
अचानक मेरे मन में,
घृणा सी दौड़ गयी.
मानो दूर आकाश में,
एक बिजली सी कौंध गयी.
मैं अपनी घृणा को छिपा ना सका,
मन कि आवाज़ को अंदर दबा ना सका.
बिना सोचे समझे,
मैं कसाई पर गरज पड़ा.
मानो कसाई पर भादों सा बरस पड़ा.
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