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  • लोकतंत्र है आज देश में,
    बाढ़ आ गयी नेता की.
    नेताओं की बाढ़ देख,
    याद आती द्वापर-त्रेता की.

    राम और कृष्ण नहीं,
    याद आते हैं रावण और शकुनी मामा.
    मातृभूमि का हर के चीर,
    दुशाशन करता हंगामा.

    कुरुक्षेत्र था एक बस तभी,
    आज हुआ देश व्यापी.
    रुधिर बहा करता गलियों में,
    जिसे देख जनता काँपी.

    चुनाव होता है आज इस तरह,
    यूं जनता ने वोट दिए,
    चुनना था जनता को इनमें
    किसने सबसे कम खून किये!

    अभिनेता बने हैं नेता आज,
    नेता अब अभिनय करते हैं,
    अभिनय-नीति का फर्क मिटा यूं,
    खाई मिति नेता और अभिनेता कि.

    लोकतंत्र है आज देश में बाढ़ आ गयी नेता कि.

  • ऐ मानव, जो हम ना रहे तो

    तुम कैसे रह पाओगे,

    सावन के झूले छोड़ चुके हो

    और क्या-क्या छुड़ाओगे?

     

    ऑक्सीजन के सिलेंडर

    अपनी पीठों पर लटकाओगे,

    उस सिलेंडर में भरने को

    ऑक्सीजन कहाँ से लाओगे?

     

    तुमने जंगलों को काटकर

    कंक्रीट के जंगल खड़े किए,

    इन जंगलों में सजाने को

    लकड़ी कहाँ से लाओगे?

     

    इतना सोचो हमारे बिना

    आयुर्वेद का मोल कहाँ,

    रोगों के उपचार के लिए

    जड़ी-बूटियाँ कहाँ से पाओगे?

     

    अगर जानवर नहीं रहे तो 

    तुम्हारा भी अस्तित्व कहाँ,

    पंचतंत्र की कहानियों में

    पात्र किसे बनाओगे?

     

    अब भी वक्त है ऐ इंसानों

    हमारी नहीं खुद की सोचो,

    अगर सृष्टि यूँ उजड़ गई तो

    फिर पीछे पछताओगे|

     

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    सत्य प्रकाश शुक्ल

     

  • दान करे क्या कोई दुनिया में
    जैसा दान किया मैंने,
    दिल का एक टुकड़ा ही दे डाला,
    अहा! कैसा दान किया मैंने.

    जिस बेटी को जब चोट लगी,
    एक टीस उठी मेरे दिल से.
    आज दिल पर पत्थर रखकर,
    उसी बेटी को दान किया मैंने.
    ये कैसा दान किया मैंने!

    बेटी क्या! एक सहारा थी.
    सारे घर का उजियारा थी.
    आज घर में अंधियारा है,
    दिए को दान किया मैंने.
    ये कैसा दान किया मैंने!

    देखो बेटा! ना ठेस लगे
    कमाल कि कोमल कलि है ये.
    देखो कोई दुःख ना हो इसे,
    बड़े नाजों से पली है ये!
    अपने गुलशन की कली तोड़,
    दूजे को दान किया मैंने.
    ये कैसा दान किया मैंने!

    जो ये धुंआ देखा तुमने,
    ये पटाखों का धुआं नहीं.
    मेरे दिल से ही उठा है ये,
    जो हिस्सा टूटा वो भरा नहीं!
    अब सुखी रहो तुम पति-पत्नी,
    तुमको वरदान दिया मैंने.
    ये कैसा दान दिया मैंने!

    पंडित-महंत सब कहते हैं,
    पापों का त्राण किया मैंने.
    ये कन्यादान दिया मैंने.
    ये कन्यादान दिया मैंने.

     

     

  • बाल समय रवि भक्षी लियो तब,
    तीनहुं लोक भयो अंधियारों।
    ताहि सों त्रास भयो जग को,
    यह संकट काहु सों जात न टारो।
    देवन आनि करी बिनती तब,
    छाड़ी दियो रवि कष्ट निवारो।
    को नहीं जानत है जग में कपि,
    संकटमोचन नाम तिहारो ॥ १ ॥

    बालि की त्रास कपीस बसैं गिरि,
    जात महाप्रभु पंथ निहारो।
    चौंकि महामुनि साप दियो तब,
    चाहिए कौन बिचार बिचारो।
    कैद्विज रूप लिवाय महाप्रभु,
    सो तुम दास के सोक निवारो ॥ २ ॥

    अंगद के संग लेन गए सिय,
    खोज कपीस यह बैन उचारो।
    जीवत ना बचिहौ हम सो जु,
    बिना सुधि लाये इहाँ पगु धारो।
    हेरी थके तट सिन्धु सबे तब,
    लाए सिया-सुधि प्राण उबारो ॥ ३ ॥

    रावण त्रास दई सिय को सब,
    राक्षसी सों कही सोक निवारो।
    ताहि समय हनुमान महाप्रभु,
    जाए महा रजनीचर मरो।
    चाहत सीय असोक सों आगि सु,
    दै प्रभुमुद्रिका सोक निवारो ॥ ४ ॥

    बान लाग्यो उर लछिमन के तब,
    प्राण तजे सूत रावन मारो।
    लै गृह बैद्य सुषेन समेत,
    तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो।
    आनि सजीवन हाथ दिए तब,
    लछिमन के तुम प्रान उबारो ॥ ५ ॥

    रावन जुध अजान कियो तब,
    नाग कि फाँस सबै सिर डारो।
    श्रीरघुनाथ समेत सबै दल,
    मोह भयो यह संकट भारो I
    आनि खगेस तबै हनुमान जु,
    बंधन काटि सुत्रास निवारो ॥ ६ ॥

    बंधू समेत जबै अहिरावन,
    लै रघुनाथ पताल सिधारो।
    देबिन्हीं पूजि भलि विधि सों बलि,
    देउ सबै मिलि मन्त्र विचारो।
    जाये सहाए भयो तब ही,
    अहिरावन सैन्य समेत संहारो ॥ ७ ॥

    काज किये बड़ देवन के तुम,
    बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
    कौन सो संकट मोर गरीब को,
    जो तुमसे नहिं जात है टारो।
    बेगि हरो हनुमान महाप्रभु,
    जो कछु संकट होए हमारो ॥ ८ ॥

    ॥ दोहा ॥
    लाल देह लाली लसे,
    अरु धरि लाल लंगूर।
    वज्र देह दानव दलन,
    जय जय जय कपि सूर ॥

  • दोहा :

     

    श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

    बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।। 

    बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

    बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।। 

     

    चौपाई :

     

    जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

    जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।

     

    रामदूत अतुलित बल धामा।

    अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।

     

    महाबीर बिक्रम बजरंगी।

    कुमति निवार सुमति के संगी।।

     

    कंचन बरन बिराज सुबेसा।

    कानन कुंडल कुंचित केसा।।

     

    हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।

    कांधे मूंज जनेऊ साजै।

     

    संकर सुवन केसरीनंदन।

    तेज प्रताप महा जग बन्दन।।

     

    विद्यावान गुनी अति चातुर।

    राम काज करिबे को आतुर।।

     

    प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।

    राम लखन सीता मन बसिया।।

     

    सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।

    बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

     

    भीम रूप धरि असुर संहारे।

    रामचंद्र के काज संवारे।।

     

    लाय सजीवन लखन जियाये।

    श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

     

    रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

    तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

     

    सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।

    अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

     

    सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।

    नारद सारद सहित अहीसा।।

     

    जम कुबेर दिगपाल जहां ते।

    कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

     

    तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

    राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

     

    तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

    लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

     

    जुग सहस्र जोजन पर भानू।

    लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

     

    प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।

    जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।

     

    दुर्गम काज जगत के जेते।

    सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।

     

    राम दुआरे तुम रखवारे।

    होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।

     

    सब सुख लहै तुम्हारी सरना।

    तुम रक्षक काहू को डर ना।।

     

    आपन तेज सम्हारो आपै।

    तीनों लोक हांक तें कांपै।।

     

    भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

    महाबीर जब नाम सुनावै।।

     

    नासै रोग हरै सब पीरा।

    जपत निरंतर हनुमत बीरा।।

     

    संकट तें हनुमान छुड़ावै।

    मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

     

    सब पर राम तपस्वी राजा।

    तिन के काज सकल तुम साजा।

     

    और मनोरथ जो कोई लावै।

    सोइ अमित जीवन फल पावै।।

     

    चारों जुग परताप तुम्हारा।

    है परसिद्ध जगत उजियारा।।

     

    साधु-संत के तुम रखवारे।

    असुर निकंदन राम दुलारे।।

     

    अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।

    अस बर दीन जानकी माता।।

     

    राम रसायन तुम्हरे पासा।

    सदा रहो रघुपति के दासा।।

     

    तुम्हरे भजन राम को पावै।

    जनम-जनम के दुख बिसरावै।।

     

    अन्तकाल रघुबर पुर जाई।

    जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।

     

    और देवता चित्त न धरई।

    हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

     

    संकट कटै मिटै सब पीरा।

    जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।

     

    जै जै जै हनुमान गोसाईं।

    कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।

     

    जो सत बार पाठ कर कोई।

    छूटहि बंदि महा सुख होई।।

     

    जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।

    होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

     

    तुलसीदास सदा हरि चेरा।

    कीजै नाथ हृदय मंह डेरा।। 

     

    दोहा :

     

    पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

    राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।

     

  • जब वो आतीं खिलती कलियाँ,
    जब वो आतीं खिलते मन,
    जब वो आतीं धक-धक करके,
    हृदय धड़कता, पल-पल हरदम|
    जब वो आतीं, देख-देख कर,
    होता है मन-चित्त प्रसन्न|1|

    काश! वो मुझसे बातें करती,
    भूल जाता मैं सारे ग़म|
    अगर साथ मिले जो उनका,
    लगा दूँ अपना तन, मन, धन|2|

    रहना चाहे कदमों में उनके,
    मृगतृष्णा सा पागल मन,
    रहना चाहे कदमों में उनके,
    मृगतृष्णा सा पागल मन|3|

     

  • सब की खुशियों में शामिल होता मेरा केमरा
    सब के होठो पर मुश्कान लाता मेरा केमरा
    तुम्हारी यादो में जाकता मेरा केमरा
    तुम्हारी हँसी ठिठोली में सामने होता मेरा केमरा

    रोते हुए को हँसता मेरा केमरा
    खुशी के मारे रुलाता मेरा केमरा

    कभी किसी की याद दिलाता
    कभी बिछड़े हुए को मिलाता
    हर खुशियों को समेटता
    हँसी मजाक इठलाती शरारतों को समेटता मेरा केमरा
    सब मानते खुशिया और चुप रहता मेरा केमरा

    पर जब भी केमरे की यादो को देखा
    तो हर पल रुलाता हे मेरा केमरा

    "उसका आज नही होता
    उसका आज कोई नही समझता"

    पर उसके पलों को देखा जब जब मेने
    जो उसने समाये थे अपने अन्दर उसने
    वो हर पल रुलाता गया

    पर कुछ ना कहता
    किसी से कुछ ना चाहता
    फिर भी सब को खुशिया देता मेरा केमरा

    "पुरानी तस्वीरों को देख कर
    मुझे भी याद कर लिया करो
    कुछ ना सही थोड़ी मेरी
    सरहना ही कर लिया करो "

    में हमेशा शादी ,पार्टीज ,पिकनिक और कई जगह जाता
    सब के चेहरों और उनकी हलचल को अपने अन्दर समेटता
    पर कोई मेरी अहमियत को ना समझता
    ना कोई मेरी सराहना करता

    जब मेरी यादो में जाता
    तो अकेले में बेथ क चुप-चाप रोता

    बड़ा प्यारा
    बड़ा न्यारा
    मेरा केमरा

    शादी के हर तुम्हारी हल-चल को समेटता मेरा केमरा
    पर कभी कोई नही कहता की सबसे जरुरी हे मेरा केमरा

    "समझो उसके आज को
    कल में क्या रखा हे
    तुम्हारे आज को जिसने सजोये रखा हे
    पहचानो उस निर्जीव को"

    दुनिया में कोई नही हे जो अपना भुत(past ) देखले
    मेरा केमरा वो भी दिखा दे अब तो समझो इंसानों
    कितना प्यारा मेरा केमरा
    कितना प्यारा मेरा केमरा

    "हँसी ख़ुशी वीरानियो में रहे तुम मेरे पास
    अब जाना ना दूर मुझसे रहना हमेशा मेरे पास"
    लेखक :-चन्दन राठौड़ (www.facebook.com/rathoreorg)
    समय :- 07:42pm
    दिनाक 25-11-2012

     

  • एक देश में एक राजा का शाशन था. उसके सभी दरबारी अत्यंत वफादार थे. राजा बहुत दयालु था. उसके शाशन में प्रजा बहुत खुश थी. किन्तु कुछ विरोधी लोग हमेशा राजा के विरुद्ध षड़यंत्र करते रहते थे. ऐसे ही एक षड़यंत्र के तहत प्रजा में राजा के विरुद्ध झूठी भावनाएं भड़का कर उन्होंने राजा को गद्दी से उतार दिया. इसके बाद एक षड़यंत्र के तहत राजा को मरवा दिया गया. राजा का ज्येष्ठ पुत्र उस समय राज-काज सँभालने के लिए बहुत छोटा था. इस लिए राजमाता के संरक्षण में एक वफादार वजीर को गद्दी पर बैठाया गया. किन्तु जब लगा की वह वजीर राज-खानदान की निष्ठाओं के विरुद्ध जाने का प्रयास कर रहा है तो उसे हटाकर दूसरे एक ऐसे वफादार वजीर को गद्दी दी गयी जो राज-माता की आज्ञा के बिना एक शब्द बोलने की भी हिमाकत ना कर सके.

    इस बीच युवराज का लालन-पालन राजसी अंदाज़ में जारी रहा. सभी दरबारी हर महीने-दो-महीने में अपनी निष्ठां सिद्ध करने के लिए युवराज जिंदाबाद और युवराज को गद्दी दो के नारे लगाते रहते थे. वैसे कुछ मूर्ख लोग इसे चाटुकारिता का नाम दे कर बदनाम करने की भी कोशिश करते थे. लेकिन इससे दरबारियों की असीम स्वामी-भक्ति और निष्ठाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

    अंत में वह दिन आ ही गया. एक विशाल सभा का आयोजन किया गया. राज-खानदान के सभी चाटुकारों - क्षमा कीजियेगा, वफादारों को निमंत्रित किया गया. हमेशा की तरह इकठ्ठा होते ही सबने एक स्वर में यूवराज जिंदाबाद, युवराज को गद्दी दो के नारे लगाने शुरू किये. तभी पृष्ठ से राजमाता का प्रादुर्भाव हुआ, और उन्होंने यह घोषणा की कि युवराज अब अपनी जिम्मेदारियां उठाने को तैयार हैं. अब वह समय आ गया है कि उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी दी जाए. इसके साथ ही उन्होंने युवराज के माथे पर राज-तिलक लगा दिया. सारी सभा में जय-जयकार के नारे गूँज उठे. सारी सभा मारे खुशी पागल हुई जा रही थी. सभी चाटुकार - अरे! एक बार फिर माफ कीजियेगा - वफादार यह बताने में जुट गए कि कैसे उन्होंने वर्षों इस दिन की प्रतीक्षा में काटे हैं, और कैसे युवराज ने यह पद-भार स्वीकार करके देश एवं राष्ट्र पर अभूत-पूर्व उपकार किया है.

    इसके बाद युवराज ने सभा को संबोधित करते हुए देश के निर्माण की कसम खायी और सभा युवराज जिंदाबाद के नारों से गूँज उठी.

    यह कहानी थी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की!

    बस मैं इसके आगे कुछ और नहीं कहूँगा. कहीं इससे किसीकी धार्मिक भावनाओं को ठेस ना पहुँच जाए!

    बस इतना ही कहूँगा - युवराज की जय हो! राज-खानदान का इकबाल बुलंद रहे. (देश का भला हो ना हो, शायद मेरा बुरा होने से बच जाए)

    जब मुंह खोलो, जय-जय बोलो,
    वरना तिहाड़ का ताला है!

     

  • सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,
    मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
    दो राह,समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
    सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.

    जनता? हाँ, मिट्टी कि अबोध मूरतें वही,
    जाड़े-पाले की कसक सदा रहने वाली,
    जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे,
    तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली.

    लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
    जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है,
    दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
    सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.

    हुंकारों से महलों कि नींद उखड जाती,
    साँसों के बल से ताज हवा में उड़ते हैं,
    जनता कि रोके राह समय में ताव कहाँ?
    वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुडता है.

    सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
    तैंतीस कोटि-हित सिंघासन तैयार करो,
    अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
    तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो.

    आरती लिए तूं किसे ढूँढता है मूरख,
    मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में,
    देवता कहीं सडकों पर मिट्टी तोड़ रहे,
    देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में.

    फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
    धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है,
    दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
    सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.

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    रामधारी सिंह दिनकर

     

  • एक बार बैठे-बैठे सोचा,
    चलो बाजार पर नज़र दौडाई जाय.
    चल कर कुछ चीज़ें उठाई जाएँ.
    मैं ज्यों ही बाजार में निकला,
    मेरा मन ना जाने क्यों मचला.

    मैं कुछ आगे बढ़ा तो
    मेरा मन थर्राया.
    सामने कसाइयों का बाज़ार नज़र आया.
    मेरे सामने ही एक कसाई ने गंड़ासा उठाया,

    अचानक मेरे मन में,
    घृणा सी दौड़ गयी.
    मानो दूर आकाश में,
    एक बिजली सी कौंध गयी.

    मैं अपनी घृणा को छिपा ना सका,
    मन कि आवाज़ को अंदर दबा ना सका.
    बिना सोचे समझे,
    मैं कसाई पर गरज पड़ा.
    मानो कसाई पर भादों सा बरस पड़ा.

    कसाई चुप-चाप खड़ा सुनता रहा,
    मानो मेरी बातों को,
    मन ही मन बुनता रहा.

    जब मैं बोल चुका तो उसने किया एक सवाल.
    उसने मेरा चेहरा सफ़ेद किया,
    जो था पहले लाल!

    वो बोला!
    बाबूजी!
    क्या आपने कभी किसी का गला नहीं काटा?

    कौन है इस समाज मैं,
    जो किसी का गला नहीं काटता?
    कौन है इस समाज मैं,
    जो शरीर ना सही,
    दिलों को नहीं बांटता?

    और रही बेचने की बात,
    तो बिक तो हर कोई रहा है!
    ग्राहक कि नज़र में कहीं ना कहीं टिक तो हर कोई रहा है!

    कहीं बेटे को बेचने बाप खड़ा है.
    बेटे को क्या! उसका बस चले तो,
    बिकने के लिए खुद आप खड़ा है.
    कहीं बुलबुल को बेचने सय्याद खड़ा है.
    कहीं समाज से दुखी बर्बाद खड़ा है.

    बाबूजी!
    आप तो एक ही
    गला काटता देख कर डर गए.
    अभी आपने उन्हें तो देखा ही नहीं,
    जो हर किसी का गला काटते हैं.
    हर किसी के दिल को,
    दो हिस्सों में बाँटते हैं.

    और जो नहीं बंटते,
    उनके दिलों को चीर डालते हैं.
    और उनके दिलों को चीर डालते हैं.
    और उनकी हड्डियों को,
    तब तक चूसते हैं,
    जबतक उनका खून सूख नहीं जाता.

    पर अभी तक दुनिया कि बर्बादी नहीं हुई.
    क्योंकि दुनिया से अभी,
    अच्छों कि खत्म आबादी नहीं हुई!

     

  • रुक कर पल भर के लिए ज़रा,

    ऐ देश तुम उनको याद करो.

    जो मिटा गए अपनी हस्ती,

    इस देश की लाज बचाने को,

    उनको नहीं तो कम से कम,

    उनकी यादों को आबाद करो.

     

    देश की खातिर मरे मिटे,

    क्या जोशे जुनून था वो.

    जो गिरा गए इस धरती पर,

    पानी नहीं था, खून था वो.

     

    उनके उस खून की लाज रखो,

    यूँ देश को ना बर्बाद करो.

    रुक कर पल भर के लिए ज़रा,

    ऐ देश तुम उनको याद करो.

     

  • प्रिय मित्रों,
    आज मुझे यह पोस्ट लिखते हुए डर लग रहा है कि लोग पता नहीं इसका क्या अर्थ निकाल लें और इस पर किस प्रकार कि बहस शुरू हो जाये! वैसे यह अपने आप में विडम्बना ही है कि गाँधी के बारे में लिखते हुए किसी को डर लगता हो.
     
    पर क्या करें तबसे लेकर अब तक गाँधी में ज़मीन आसमान का अंतर आ चुका है! एक गाँधी वे थे कि उन्हें कोई गाली लिख कर दे तो उस चिट्ठी में से भी काम कि चीज़ "पिन" को निकाल बाकी को नज़रंदाज़ कर देते थे, और एक गाँधी अब हैं कि अगर कहीं अपने खिलाफ कोई बोलना तो दूर, सोचता हुआ भी दिख जाए तो उसके पीछे दाना पानी ले कर पड़ जाते हैं. वे सामने ना भी आयें तो उनके "वफादार" इस काम के लिए काफी हैं. वैसे इस विषय में कोई टिप्पणी न करना भी क्या इस प्रवृत्ति को मौन समर्थन नहीं है? लेकिन यह एक ट्रेंड बन चुका है कि पहले "वफादार" बोल कर माइक टेस्टिंग करें. अगर तीर ठीक लगा तो बड़े लोग उस विचार को अपना कह देंगे, और अगर दांव उल्टा पड़ गया तो पल्ला झाड़ लेंगे.
     
    वैसे गाँधी शब्द का प्रयोग सब अपने हिसाब से करते हैं. कोई अपने को आज का गाँधी कह कर अपनी बातों में वज़न लाने कि कोशिश करता है तो कोई आज कल के लेटेस्ट फैशन - "गाँधी को गाली देना" को अपना कर स्वयं को अडवांस साबित करने में ही रस लेता है.
     
    बेचारे गाँधी! कभी सोचता हूँ यदि वो गाँधी आज आ जाएँ तो क्या हो? क्या वो भी आज के समाज के अनुसार स्वयं को ढाल कर अपने "वंशजों" के गुणगान की मजबूरी को स्वीकार कर लेंगे या अपने नाम पर चल रहे किसी आंदोलन का हिस्सा बन कर उन्हें गाली देने कि होड़ में शामिल हो जायंगे? या फी चुप चाप आज के फैशन की गालियों को सहेजने में जुट जायेंगे? क्योंकि अब तो गालियों के बीच सहेजने के लिए उन्हें पिन भी शायद ही मिले. आज कल दुनिया हाई-टेक हो गयी है. अब लोग कागज़ में लिख कर पिन लगा कर नहीं देते, बल्कि मुफ्त की stationary - facebook और twitter का प्रयोग करते हैं - मुफ्त का चन्दन, घिस मेरे नंदन!
     
    इसलिए भाई, मैं तो चुप ही रहूँगा! कौन जोखिम ले! पता नहीं हमारी आज़ाद देश की सरकार की नज़र कहाँ पड़ जाए और आज़ादी का नया पाठ पढ़ना पड़ जाए!
     
    भाई! मैं चुप हूँ! बोलना है तो आप बोलिए, मैं क्यों जोखम उठाऊं? आखिर मैं एक आज़ाद देश का आज़ाद नागरिक हूँ!

     

  • बहुत लोग विन्डोज़ ८ में एक समस्या का सामना कर रहे हैं. बिंग, न्यूज़ और मौसम जैसे अप्लिकेशन इन्टरनेट से जुड नहीं पाती. मैंने भी इस समस्या का करीब २ महीने तक बिना कोई हल प्राप्त किये सामना किया. विन्डोज़ ८ एक अपेक्षाकृत नया ओ.एस. है, और माइक्रोसॉफ्ट इसके लिए एही हल बताता है की अपने पी.सी. को रिफ्रेश करें. लेकिंग यदि आपके पी.सी. पर बहुत सारे कीमती प्रोग्राम इंस्टाल किये हुए हैं तो आप शायद यह नहीं करना चाहेंगे. मेरे साथ भी येही समस्या थी.

    आज सेत्तिंग्स के साथ खेलते हुए मुझे इस समस्या का कारण पता चल गया और मैं हैरान रह गया की इसका समाधान कितना आसान था! समस्या असल में इन्टरनेट बांटने की एक सेट्टिंग के साथ है, जो मेट्रो स्टाइल के इन्टरनेट एक्सप्लोरर को अत्यंत संकुचित बना देती है. आपको केवल शेयेरिंग को बंद करना है. यह करने की प्रक्रिया निम्न है:

    १) चार्म्स मेनू पर जाइए.
    २) सेत्तिंग्स के आप्शन पर क्लिक कीजिये.
    ३) "Internet access" के आप्शन पर क्लिक्क कीजिये.
    ४) अपने जारी इन्टरनेट कनेक्शन पर दायाँ क्लिक कीजिये.
    ५) "Turn sharing on or off" पर क्लिक कीजिये.
    ५) "No, don't turn on sharing or connect to devices" पर क्लिक कीजिये.

    बस. अब आपके अप्लिकेशन इन्टरनेट से जुड पायेंगे.

    अभिनन्दन
    सत्य प्रकाश शुक्ल