Submitted by satya on मंगल, 06/21/2016 - 18:59 ५) मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला; उठा कल्पना के हाथों से स्वयं इसे पी जाता हूँ; अपने ही में हूँ मैं साकी, पीने वाला, मधुशाला| Book traversal links for मधुशाला (५) ‹ मधुशाला (४) ऊपर मधुशाला (६) ›