सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह,समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.
जनता? हाँ, मिट्टी कि अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा रहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली.
लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.
हुंकारों से महलों कि नींद उखड जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ते हैं,
जनता कि रोके राह समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुडता है.
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंघासन तैयार करो,
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो.
आरती लिए तूं किसे ढूँढता है मूरख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में,
देवता कहीं सडकों पर मिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में.
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंघासन खाली करो कि जनता आती है.
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रामधारी सिंह दिनकर
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