कसाई

Submitted by satya on रवि, 02/14/2016 - 12:47

एक बार बैठे-बैठे सोचा,
चलो बाजार पर नज़र दौडाई जाय.
चल कर कुछ चीज़ें उठाई जाएँ.
मैं ज्यों ही बाजार में निकला,
मेरा मन ना जाने क्यों मचला.

मैं कुछ आगे बढ़ा तो
मेरा मन थर्राया.
सामने कसाइयों का बाज़ार नज़र आया.
मेरे सामने ही एक कसाई ने गंड़ासा उठाया,

अचानक मेरे मन में,
घृणा सी दौड़ गयी.
मानो दूर आकाश में,
एक बिजली सी कौंध गयी.

मैं अपनी घृणा को छिपा ना सका,
मन कि आवाज़ को अंदर दबा ना सका.
बिना सोचे समझे,
मैं कसाई पर गरज पड़ा.
मानो कसाई पर भादों सा बरस पड़ा.

कसाई चुप-चाप खड़ा सुनता रहा,
मानो मेरी बातों को,
मन ही मन बुनता रहा.

जब मैं बोल चुका तो उसने किया एक सवाल.
उसने मेरा चेहरा सफ़ेद किया,
जो था पहले लाल!

वो बोला!
बाबूजी!
क्या आपने कभी किसी का गला नहीं काटा?

कौन है इस समाज मैं,
जो किसी का गला नहीं काटता?
कौन है इस समाज मैं,
जो शरीर ना सही,
दिलों को नहीं बांटता?

और रही बेचने की बात,
तो बिक तो हर कोई रहा है!
ग्राहक कि नज़र में कहीं ना कहीं टिक तो हर कोई रहा है!

कहीं बेटे को बेचने बाप खड़ा है.
बेटे को क्या! उसका बस चले तो,
बिकने के लिए खुद आप खड़ा है.
कहीं बुलबुल को बेचने सय्याद खड़ा है.
कहीं समाज से दुखी बर्बाद खड़ा है.

बाबूजी!
आप तो एक ही
गला काटता देख कर डर गए.
अभी आपने उन्हें तो देखा ही नहीं,
जो हर किसी का गला काटते हैं.
हर किसी के दिल को,
दो हिस्सों में बाँटते हैं.

और जो नहीं बंटते,
उनके दिलों को चीर डालते हैं.
और उनके दिलों को चीर डालते हैं.
और उनकी हड्डियों को,
तब तक चूसते हैं,
जबतक उनका खून सूख नहीं जाता.

पर अभी तक दुनिया कि बर्बादी नहीं हुई.
क्योंकि दुनिया से अभी,
अच्छों कि खत्म आबादी नहीं हुई!

 

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