गाँधी - तब और अब!
प्रिय मित्रों,
आज मुझे यह पोस्ट लिखते हुए डर लग रहा है कि लोग पता नहीं इसका क्या अर्थ निकाल लें और इस पर किस प्रकार कि बहस शुरू हो जाये! वैसे यह अपने आप में विडम्बना ही है कि गाँधी के बारे में लिखते हुए किसी को डर लगता हो.
पर क्या करें तबसे लेकर अब तक गाँधी में ज़मीन आसमान का अंतर आ चुका है! एक गाँधी वे थे कि उन्हें कोई गाली लिख कर दे तो उस चिट्ठी में से भी काम कि चीज़ "पिन" को निकाल बाकी को नज़रंदाज़ कर देते थे, और एक गाँधी अब हैं कि अगर कहीं अपने खिलाफ कोई बोलना तो दूर, सोचता हुआ भी दिख जाए तो उसके पीछे दाना पानी ले कर पड़ जाते हैं. वे सामने ना भी आयें तो उनके "वफादार" इस काम के लिए काफी हैं. वैसे इस विषय में कोई टिप्पणी न करना भी क्या इस प्रवृत्ति को मौन समर्थन नहीं है? लेकिन यह एक ट्रेंड बन चुका है कि पहले "वफादार" बोल कर माइक टेस्टिंग करें. अगर तीर ठीक लगा तो बड़े लोग उस विचार को अपना कह देंगे, और अगर दांव उल्टा पड़ गया तो पल्ला झाड़ लेंगे.
वैसे गाँधी शब्द का प्रयोग सब अपने हिसाब से करते हैं. कोई अपने को आज का गाँधी कह कर अपनी बातों में वज़न लाने कि कोशिश करता है तो कोई आज कल के लेटेस्ट फैशन - "गाँधी को गाली देना" को अपना कर स्वयं को अडवांस साबित करने में ही रस लेता है.
बेचारे गाँधी! कभी सोचता हूँ यदि वो गाँधी आज आ जाएँ तो क्या हो? क्या वो भी आज के समाज के अनुसार स्वयं को ढाल कर अपने "वंशजों" के गुणगान की मजबूरी को स्वीकार कर लेंगे या अपने नाम पर चल रहे किसी आंदोलन का हिस्सा बन कर उन्हें गाली देने कि होड़ में शामिल हो जायंगे? या फी चुप चाप आज के फैशन की गालियों को सहेजने में जुट जायेंगे? क्योंकि अब तो गालियों के बीच सहेजने के लिए उन्हें पिन भी शायद ही मिले. आज कल दुनिया हाई-टेक हो गयी है. अब लोग कागज़ में लिख कर पिन लगा कर नहीं देते, बल्कि मुफ्त की stationary - facebook और twitter का प्रयोग करते हैं - मुफ्त का चन्दन, घिस मेरे नंदन!
इसलिए भाई, मैं तो चुप ही रहूँगा! कौन जोखिम ले! पता नहीं हमारी आज़ाद देश की सरकार की नज़र कहाँ पड़ जाए और आज़ादी का नया पाठ पढ़ना पड़ जाए!
भाई! मैं चुप हूँ! बोलना है तो आप बोलिए, मैं क्यों जोखम उठाऊं? आखिर मैं एक आज़ाद देश का आज़ाद नागरिक हूँ!
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